मौक़ा
क्यूँ बदल गई ज़िंदगी, किधर गई रफ़्तार सारे वहम निकल गए, पड़ी वक्त की मार किधर गए वो, कल के, मालिक थे जो, ना रुके और थमें थे, कैसे फसें मझदार सोचा था, रुक जाएगी दुनिया पर तर गए सब, हमको झूठा था ख़ुमार ना सोचा ना समझा, ये वक्त भी गँवा डाला हम जैसों को ही मिला था, था लेखों का चमत्कार क्या है हम, ना अब भी जान पाए पता पल का नहीं, ख़्याल परसों का, हम क़ैसे हैं बीमार बेहतर होता, कुछ तो जी जाते, कुछ कहते सुनते, बनते किसी के ग़मखार नए आयामों की, शुरुआत को समझें कैसे सपनो को, होने दे तार तार कितनी हसरतें थी, फिर से शुरू करने की कितनी ख़्वाहिशें थी, फिर ज़िंदगी लिखने की मिला है मौक़ा, उठाओ फिर से कलम इक बार छेड़ो मन का मल्हार, करलो जी भर कर प्यार ग़र टूट गए हों, पर साँस फिर भी चालू है भिंडी ना भी हो, कम किधर ये आलू है कुछ अब बर्तन कम कर लो जीतें जी कुछ धर्म...