मौक़ा


क्यूँ बदल गई ज़िंदगी, 
किधर गई रफ़्तार
सारे वहम निकल गए, 
पड़ी वक्त की मार

किधर गए वो, 
कल के, मालिक थे जो,
ना रुके और थमें थे, 
कैसे फसें मझदार

सोचा था, 
रुक जाएगी दुनिया
पर तर गए सब, 
हमको झूठा था ख़ुमार

ना सोचा ना समझा, 
ये वक्त भी गँवा डाला
हम जैसों को ही मिला था, 
था लेखों का चमत्कार

क्या है हम, 
ना अब भी जान पाए
पता पल का नहीं, ख़्याल परसों का, 
हम क़ैसे हैं बीमार

बेहतर होता, 
कुछ तो जी जाते,
कुछ कहते सुनते, 
बनते किसी के ग़मखार

नए आयामों की, 
शुरुआत को समझें 
कैसे सपनो को, 
होने दे तार तार

कितनी हसरतें थी, 
फिर से शुरू करने की
कितनी ख़्वाहिशें थी, 
फिर ज़िंदगी लिखने की
मिला है मौक़ा, 
उठाओ फिर से कलम इक बार
छेड़ो मन का मल्हार, 
करलो जी भर कर प्यार   

ग़र टूट गए हों, 
पर साँस फिर भी चालू है
भिंडी ना भी हो, 
कम किधर ये आलू है
कुछ अब बर्तन कम कर लो
जीतें जी कुछ धर्म कर लो
कुछ पुराने कपड़े ही दे दो यार
जाने किसका हो उद्धार 
कुछ झाड़ू कट्का तुम करलो
कोई पुराना नाटक ख़त्म करलो
करने को कितना कुछ है यार
मिलेगा मौक़ा, ना तीजी बार


श्यामिली

Comments

  1. क्या है हम,
    ना अब भी जान पाए
    पता पल का नहीं, ख़्याल परसों का,
    हम क़ैसे हैं बीमार..

    ये चार लाइन तो गजब की है... madam

    @vikram

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  2. Wallah...1st Paragraph was too Apt n befitting the prevalent crisis and subsequent sequential paras.Very Subtle with clear understanding of Emotional Turmoil which human race is going through. Way to go, Bhabhi. May Almighty bless you with more Artistic n Articulated thoughts!!!

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  3. बेहतर होता,
    कुछ तो जी जाते,
    कुछ कहते सुनते,
    बनते किसी के ग़मखार
    Aapki Behtreen kavitaaon main se ek. Very nice poem mam

    ReplyDelete
  4. Waah mam apne sach mai dil ki bt likh Di..."behtar hota Kuch toh jee lete"

    ReplyDelete

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