इंतज़ार
तुझे भूलने की चाह
अब ना-गवार सी लगती है
बुरा बोलो, चाहे भला
जिंदगी अब कारगर लगती
है
तेरा जाना यूँ तो
जानलेवा ही था
तेरे कमरे की फिजाँ आज
भी
खुशबूदार लगती हैं
चौखट की तरह दर पर
खड़े ही रह गए हम
तेरे कदमों की आहट
मुझे बारम्बार लगती है
तेरे बिना ही तुझको
चाहा है मैंने कब से
तेरे वजूद की माजूदगी
तुझसे ज्यादा वफ़ादार
लगती है
तूने कहा था साथी
तू साथ सदा निभाएगा
तेरी बेवफाई आज भी
मुझको इकरार ही लगती
है
दिल्फेक ना समझना
ना ही वक़्त की फ़िराक
में हूँ
मेरी जिंदगी अब भी
तेरी हाँ की, कतार में
लगती है
क्या- क्या चाहत थी
दिल-ए-नादान की
तेरी महफ़िल मेरी कब्र के
इंतज़ार में लगती है
श्यामिली
Bahut khoob
ReplyDeleteKya khoob kaha👌👌
ReplyDeleteWow ! Great poem with great feelings Mam , 🙏🙏🙏
ReplyDeleteSuperb 👌👌
ReplyDeleteYery touching And sad
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