ये माना अब नहीं, बेज़ार

ये माना अब नहीं, बेज़ार
ज़रा सी बेक़रारी है
न पलको को कोई दरकार
ये कैसी सी ख़ुमारी है

तसव्वुर को भला भूलें,
         जाना, हम तेरे कैसे
बतायें फिर किसे हर बार
के तन्हा उम्र गुज़ारी है

क़ातिल कह तो ले उसको
मगर, हम यूँ भी डरते हैं
न हो बदनाम वो इस बार
हमारी ज़िम्मेदारी है

ना रातों को जगा करते है
ना बेचैन, है धड़कन
भला अब किससे हो दिल खार
कहें क्या, क्या बीमारी है
    
ज़रा उस चाँद को कहदो
छुपाले, वो चाँदनी अपनी
नहीं तो जंग हो इस पार
तुम्हारी या हमारी है

श्यामिलि सा मुक़द्दर हो
तो जन्नत, ख़ुद ही मिल जाए
ना हो कोई रंग दावेदार
ना जिससे रिश्तेदारी है

        श्यामिलि

Comments

  1. Madam, इस बार तो आपने ऐसा लिखा है,जिसे बोलते है झकास, लेकिन आपने जो लिखा है उस मे जो दो लाइन है, वो बहोत ही बेहतरीन है और वो लाइन है।

    श्यामिलि सा मुक़द्दर हो
    तो जन्नत, ख़ुद ही मिल जाए.....

    काश ऐसा मुकदर सबका हो

    @Vikram

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  2. जरूरी नही कि जिसमें साँसे नहीं
    वही मुर्दा हैं..

    जिसमें इन्सानियत नहीं हैं
    वो कौन सा जिन्दा हैं..।।

    ReplyDelete
  3. Jis din Gulzar Saab ne aapka blog dekh liya wo to likhna bandh kar de ge.

    Kyuki aap you bahot speed se bahot badiya likhte jaa rhe ho
    Day by Day...hum dua karte jaayenge aur AAP bahot aage tak jaaoge.

    Chhaey angoota lagwa lo.

    ReplyDelete

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