क्या कर बैठे
आसां ही था ज़िंदगी का सफ़र
ख़ुद ही मुश्किल बढ़ा बैठे
उल्टे रास्तों पे चलते चलते
ख़ुद ही ठोकर खा बैठे
कभी ख़ुद को ना ढूँढा
कभी उसको ना पाया
कशमाकश में गुजरी ज़िंदगी
क्या अपना हाल बना बैठे
मेरा, मेरा ना हुआ
कैसे तुझको समझाऊ मैं
अब भी जिंदा है, एहसास वही
क्या आस उससे लगा बैठे
वो पंछी ना, अपने बाग़ का था
पर उससे इतना लगाव यूँ था
वो फूर से उड़ा, ना वापिस मुड़ा
हम अपना आप गवां बैठे
ए जिंदगी हम शर्मिंदा है
कैसे कैद, मन का परिंदा है
कैसी आज़ादी की होड़ लगी
पिंजरे में ही घर बसा बैठे
इक बार फ़िर से लिखने दो
कहानी हम बदल लेंगे
या कदमों में उनका सर होगा
या होंगे, उसको भुला बैठे
आवाज़ अपनी बुलंद ना रहीं
नज़र अपनी मंद हो चली
मंजिल का मतलब अंत समझ आया
अब सफ़र को ही मंजिल बना बैठे
श्यामिली
इस दौर के लिए आपने बहोत्त ही उम्दा लिखा है, बहोत ही बेहतरीन ।।।।
ReplyDelete@ Vikram
Bahut hi sunder vichar hai aapkey
ReplyDelete👌👌
ReplyDeleteNice one
ReplyDeleteNice maam
ReplyDeleteWoh Panchhi Na, apne bagh ka tha
ReplyDeletePar uss se itna lagav yun tha...Trim..
Behetarein...Masha Allah..Zazbaton koh Pirona koi aapse Seekhe..
Another Feather in Cap for such a great Masterpiece!!!
Agli peshkash ka intezar rahega...
Sundar likha hai .....😊👌
ReplyDeleteGreat
ReplyDeleteVery good
ReplyDeleteBest
Sanjeev Grover
No words to express would be enough to say that you write so so amazing. Thank you for introducing me to such creative work.🥰
ReplyDelete