उम्मीद
इससे
ज़्यादा की उम्मीद,
क्या
रखते हो
साँसों
का आना जाना,
क्या
कम है
हर
आँख जैसे
है
परेशां
कैसा
अनजाना सा
डर
है
वक़्त
बुरा है
पर
निकल जायेगा
घास
के आगे
तूफ़ान
में कितना दम है
यूँ
ही बीत जायेगा
सफ़र
चलते चलते
क्यूँ
पिंजरे की है जुस्तजू
क्यूँ
पत्थर सा हुआ मन है
कितना
और सजाएगा
ज़र
को मिटटी ही मिल जाने दे
कभी
रूह भी तराश ले
वो
तेरी असली कंचन है
तूने
बस उसको देखा
उसके
दिए ज़ख्म भी देखे
ना
उसको देखा
जो
लिए हाथ मे मरहम है
रख
एतबार वो
करेगा
इन्साफ
वो
बेखबर लगता है
पर
उसको सबकी खबर है
श्यामिली
Nice mam
ReplyDeleteSuper
ReplyDeleteSundar
ReplyDeleteBahut acchi hai
ReplyDeleteNice ma'am
ReplyDeleteNice👌👌
ReplyDeleteNice 👌
ReplyDeleteGood!
ReplyDeleteBilkul ji
ReplyDelete🙏🙏🙏🙏
ReplyDeleteThe subtle nuances have been very well articulated. Amazing writing👏👏
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर ।
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