नींद
महीने पे महीने
साल दर साल
बीतने को आए
पर अब भी मुझको,
ये भोर क्यूँ ना भाए
दशहरा भी गया
गयी अब तो दिवाली भी
पर ये कुम्भकरन मेरा
मुझसे मर ना पाए
जाने अब भी मुझको,
ये भोर क्यूँ ना भाए
सोचा था बाल अवस्था है
कभी तो खत्म होगी
जीवन इक कठिन रस्ता है
कभी तो बड़ी हूँगी
बचपन मेरा मुझसे
ना ये वक़्त छीन पाए
जाने अब भी मुझको,
ये भोर क्यूँ ना भाए
माँ बचपन में बोली थी
सोचा एक ठिठोली थी
कैसे सारा जीवन बिताओगी
कभी तो काम पर जाओगी
पसंद नापसंद बस मिथ्या है
हर कोई बस कर्म फ़ल ही पाए
पर जाने अब भी मुझको,
ये भोर क्यूँ ना भाए
चलो उम्र अब भी पड़ी है
नव वर्ष की भी घड़ी है
एक मंडल और नींद लेते है
अबके शायद वो साल आए
शायद सूरज ही, थोड़ा बदल जाए
नित नए रंग बिखराए
और चमत्कार हो जाए
और ये भोर, शायद, मुझको, भा जाए
श्यामिली
nice :-)
ReplyDeleteKaha se late ho ase vichar
ReplyDeleteNice thought Mam
ReplyDeleteI loved it. Very nicely written 👌 U capture the moment is brilliant 👏👏👏
ReplyDeleteVery true in today's Hush Hush life.Articulated in very subtle manner. Great going.All d best!!
ReplyDeleteNice thought ji
ReplyDeleteNice .....
ReplyDeleteGreat
ReplyDeleteBahot hi umda likha hai aapne madam...
ReplyDelete@vikram
Madam, next time zindagi p kuch likhna khas un logo k liye zinko zindagi kuch nhi deti.aap likho ge to kuch to motivation milega.
Nice mam
ReplyDeleteपसंद नापसंद बस मिथ्या है
ReplyDeleteहर कोई बस कर्म फ़ल ही पाए, very nice line, mam👌👌